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ब्रा॒ह्म॒णमद्य॒ वि॑देयं पितृ॒मन्तं॑ पैतृम॒त्यमृषि॑मार्षे॒यꣳ सु॒धातु॑दक्षिणम्। अ॒स्मद्रा॑ता देव॒त्रा ग॑च्छत प्रदा॒तार॒मावि॑शत ॥४६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब्रा॒ह्म॒णम्। अ॒द्य। वि॒दे॒य॒म्। पि॒तृ॒मन्त॒मिति॑ पितृ॒ऽमन्त॑म्। पै॒तृ॒म॒त्यमिति॑ पैतृऽम॒त्यम्। ऋषि॑म्। आ॒र्षे॒यम्। सु॒धातु॑दक्षिण॒मिति॑ सु॒धातु॑ऽदक्षिणम्। अ॒स्मद्रा॑ता॒ इत्य॒स्मत्ऽरा॑ताः। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। ग॒च्छ॒त॒। प्र॒दा॒तार॒मिति॑ प्रऽदा॒तार॑म्। आ। वि॒श॒त॒ ॥४६॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:46


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब दक्षिणा किस को और किस प्रकार देनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजा सभा और सेना के मनुष्यो ! जैसे मैं (अद्य) आज (ब्राह्मणम्) वेद और ईश्वर को जाननेवाला (पितृमन्तम्) प्रशंसनीय पितृ अर्थात् सत्यासत्य के विवेक से जिसके सर्वथा रक्षक हैं, उस (पैतृमत्यम्) पितृभाव को प्राप्त (ऋषिम्) वेदार्थ विज्ञान करानेवाला ऋषि (आर्षेयम्) जो ऋषिजनों के इस योग से उत्पन्न हुए विज्ञान को प्राप्त (सुधातुदक्षिणम्) जिसके अच्छी-अच्छी पुष्टिकारक दक्षिणारूप धातु हैं, उस (प्रदातारम्) अच्छे दानशील पुरुष को (विदेयम्) प्राप्त होऊँ, वैसे तुम लोग (अस्मद्राताः) हमारे लिये अच्छे गुणों के देनेवाले होकर (देवत्रा) शुद्ध गुण, कर्म, स्वभावयुक्त विद्वानों के (आगच्छत) समीप आओ और शुभ गुणों में (आविशत) प्रवेश करो ॥४६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। उत्साही पुरुष को क्या नहीं प्राप्त हो सकता, कौन ऐसा पुरुष है कि जो प्रयत्न के साथ विद्वानों का सेवन कर ऋषि लोगों के प्रकाशित किये हुए योगविज्ञान को न सिद्ध कर सके। कोई भी विद्वान् अच्छे गुण, कर्म्म और स्वभाव से विपरीत नहीं हो सकता और दाताजनों को कृपणता कभी नहीं आती है। इससे जो देनेवाले दक्षिणा में प्रशंसनीय पदार्थ सुपात्र, धार्मिक, सर्वोपकारक विद्वानों को देते हैं, उनकी अचल कीर्ति क्यों कर न हो ॥४६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ दक्षिणा कस्मै कथं च दातव्येत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(ब्राह्मणम्) वेदेश्वरविदम् (अद्य) (विदेयम्) अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा [अष्टा०भा०वा०८.२.२५] इति नलोपः। (पितृमन्तम्) प्रशस्ताः पितरो रक्षकाः सत्यासत्योपदेशकाः विद्यन्ते यस्य तमिव (पैतृमत्यम्) पितृमतां भावं प्राप्तम् (ऋषिम्) वेदार्थविज्ञापकम् (आर्षेयम्) ऋषीणामिदं योगजं विज्ञानं प्राप्तम् (सुधातुदक्षिणम्) शोभना धातवो दक्षिणा यस्य दातुस्तम् (अस्मद्राताः) येऽस्मभ्यं रान्ति शुभान् गुणान् ददति ते (देवत्रा) देवेषु पवित्रगुणकर्मस्वभावेषु वर्त्तमानाः (गच्छत) प्राप्नुत (प्रदातारम्) प्रकृष्टतया दानशीलम् (आ) समन्तात् (विशत) ॥ अयं मन्त्रः (शत०४.३.१९-२४) व्याख्यातः ॥४६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजासभासेनाजना ! यथाहमद्य ब्राह्मणं पितृमन्तं पैतृमत्यमृषिमार्षेयं सुधातुदक्षिणं प्रदातारं च विदेयम्, तथाऽस्मद्राताः सन्तो यूयं देवत्रा गच्छत, शुभान् गुणानाविशत ॥४६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। उत्साहितेन पुरुषेण किमाप्तुमशक्यमस्ति, को नाम खलु प्रयत्नेन विदुषः सेवित्वार्षं योगविज्ञानं साधितुन्न शक्नुयात्। नहि कश्चिदपि विद्वान् सद्गुणस्वभावग्रहणाद् विरज्येत, नहि दातॄन् कार्प्पण्यं कदाचिदाविशत्वतो यैर्दक्षिणायां प्रशस्ताः पदार्थाः प्रदीयन्ते, तेषामतुला कीर्तिः कुतो न जायेत ॥४६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. उत्साही माणसाला कोणत्या गोष्टी प्राप्त होत नाहीत? असा कोण आहे जो विद्वानांचा संग करून ऋषीमुनींनी प्रकट केलेले योगविज्ञान प्रयत्नाने साध्य करू शकणार नाही? कोणताही विद्वान, उत्तम गुणकर्म स्वभावाच्या विपरीत वागत नसतो. दाता कधीच कृपण नसतो. जी दानशूर माणसे धार्मिक, सर्वांवर उपकार करणाऱ्या सुपात्र विद्वानांना उत्तम पदार्थ दक्षिणेच्या स्वरूपात देतात. त्यांना चिरस्थायी अशी कीर्ती का बरे मिळणार नाही?